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Showing posts from May, 2022

तेरा शहर

*तेरा शहर* बेरँग सी ज़िन्दगी है जो रँग चढ़ा सब उतर गया रहा रेत सा फिसलता लम्हा लम्हा गुज़र गया बड़े रँग हमपर उछले बड़े रँग हम सम्भाले नहीं कोई समेट पाए जो आया सब बिखर गया दो पल ही ज़िन्दगी थी दो पल ही जी लिए हम अब हाथ खाली अपने जो आया सब किधर गया नहीं मुझको इश्क़ नहीं है क्यों वो मानते नहीं हैं बड़ा छोटा रास्ता था लो आया लो सफ़र गया नस नस में क्या भरा है जाने क्या उछल रहा है नहीं कोई नशा बाज़ारी जो चढ़ा फिर उतर गया जाने कैसी है खुमारी जाने कैसी यह कशिश है वो कहाँ सलामत लौटा जो इक बार तेरे शहर गया

लहरें

*लहरें* इश्क़ के समन्दर में उठती हैं कई लहरें यह कौन सी लहर है यह कौन सी लहर है लम्बी सी रात गुज़री अश्कों को पीते पीते अब कौन सी सहर है अब कौन सी सहर है आदत सी हो गई है थोड़ा रोज टूटने की बढ़ता ही जा रहा है यह इश्क़ का कहर है अब तक भी न हुआ है नज़रों से नज़र मिलना सबसे चुराकर नज़रें फिर देखती वो नज़र है थोड़ा हँस के गुजरा पीछे थोड़ा रँगे मलाल भर कर चलता ही जा रहा है जो इश्क़ का सफ़र है जाने क्या पिया था मैंने नहीं होश वापिस आया मुझको ही मुझसे मिलने की न हुई कोई ख़बर है जाने क्या खुमारी छाई कोई चोट करदो मुझपर थोड़ा होश तो सँभालूँ ये मदहोशी का ही शहर है यह दर्द टीस देता हर ज़ख्म का निशां है छाई खुमारी कैसी उनके इश्क़ का असर है नहीं सच में इश्क़ मुझको यह तुम उन्हें बता दो नहीं काबिल इक नज़र के क्यों उनको सब फिक्र है नहीं अब सम्भल रहा है भीतर उछल रहा है कोई दर्द है कसकता मीठा इश्क़ यह ज़हर है जाने क्या लिख रही है यह कलम मेरी पागल अश्कों को लज़फ़ करके करती इधर उधर है

कलम मेरी

*कलम मेरी* आज कुछ बहकर कुछ रोयेगी कलम मेरी मेरे अश्कों को लफ़्ज़ों में पिरोयेगी कलम मेरी कब से सो रही थी किन्ही कन्दराओं में आज बिखरे हुए अरमानों को सँजोयेगी कलम मेरी बहुत भर भर रखा था कुछ कुछ बहता रहा उठे हुए तूफान को अब बहायेगी कलम मेरी रोज नई चोट खाने की आदत हो गई मेरी कच्चे से ज़ख्मों को मरहम लगाएगी कलम मेरी हाँ कभी रो रोकर बुझाया था इस चिराग को अब इसकी तपिश को ही सह जाएगी कलम मेरी कुछ अश्क ऐसे भी होते हैं जो आँखों से बहते नहीं ऐसे ही अश्कों को लफ़्ज़ों में भिगोएगी कलम मेरी

बाँध सकोगे

बाँध सकोगे देह.... देह नहीं हूँ मैं चैतन्य झरण हूँ मैं चैतन्यता का एक बिन्दु जो छूटा है उसी सिन्धु से केवल एक धरा तक सिमटा अस्तित्व नही मेरा देह समझो काटो तोड़ो मरोड़ो जो अपनी भोग सम्पति जानते वहीं तक पहुँच उनकी एक बिन्दु को क्या कर पाओगे जो जी रहा भीतर ही भीतर कहीं किसी मधुर विलास की रस कणिका होकर उनके ही पुष्प की पँखुड़ी उनकी ही लता का पुष्प उनकी ही जावक की लाली उनके मधु उपवन की सुगन्ध मधुर कुँज वन की मृगी मधुवत झरती अनुराग कणिका कोई रस श्रृंगार उनका नहीं मेरा जीवन बाहर नहीं जीवन तो प्राण सँग  भीतर ही कहीं भीतर ललित गौर कणिका प्राण रमण की देहरी पर बिछी ..... चैतन्यता की आकुल व्याकुल तृषित झरण

शेष क्यों

*शेष क्यों* नहीं मुझे प्रेम नहीं प्रेम होता तो प्राण तुम्हीं होते नहीं माना तुमको प्राण जो तुम वायु होते तुम बिन कैसे स्वास आता जो तुम जल होते तुम बिन कैसे जीवन होता नही नही तुम आहार भी न हुए प्राणों का हाँ पाषाण में प्राण नही होते नहीं होते पाषाण में प्राण तो शेष क्यों यह जीवन तुम नहीं तो जीवन क्यों प्राण भी शेष क्यों

राधारमण बिना कौन हमारा

राधारमण बिना कौन हमारा भटके जन्म जन्म जग माँहिं मूल यही बीचार बीचारा एक एक ठोकर जगति सौं लागि, हरि का नाम उचारा राधारमण एक ही सांचौ जाना झूठा जगति पसारा राधारमण राधारमण भज बाँवरी रमण ही सांचौ प्यारा हरि गुरु ही मीठो लगै जगति में कड़वा सकल जग सारा

मेरा धन

मेरा धन जानती हो न सखी मेरा धन क्या है मेरा धन मेरे प्रियाप्रियतम उनका नाम उनकी सेवा उनका सुख मेरा जीवन उनका सुख बने मेरी स्वास उनका सुख बने वही तो नित्य धन मेरा भौतिक धन की क्या कहूँ सखी आज है  कल न हुआ तो उसकी नित्यता कैसी सखी धन तो यह हमारे इनका प्रेम नित्य वर्धित धन क्षण क्षण बढ़ता धन इनका प्रेम इनकी कृपा इनका स्मरण और तुम क्या ले पाओगी देती ही रहोगी जब जब बात करोगी इनकी ही बात करोगी बढ़ाती रहोगी न मेरा धन इनका प्रेम इनका प्रेम जयजय श्रीश्यामाश्याम