कीर्तन कीर्तन मात्र शब्दों का ही उच्चारण नहीं, कीर्तन एक प्रवाह है रस की हिलोर, प्राणों के मंथन से गुंथित हुआ नाम प्रवाह , प्राणों को ही पुकारता हुआ.... हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे.... कीर्तन में प्राणों से उठती पुकार और प्राण भिन्न कहाँ हैं, अभिन्न हो गए, नाम ही गुंजायमान हो रहा , नाम ही बह रहा रस होकर , नाम ही प्रवाहित हो रहा दसों दिशाओं में ...... प्रेम की गूँज, प्रेम का आवेश, प्रेम की तरंग, प्रेम का उन्माद है कीर्तन , जो इस तरंग में गया बस रँग गया , पकड़ा गया, बह गया इसी प्रेमोन्माद में , अब यह उन्माद बहता बहता महासागर की भाँति तरँगायमान हो रहा , जहां रस की हिलोर , प्रेम का उन्माद समेटते न बने रोक सकते हो तुम महासागर को, रोक सकते हो तुम उस महासिन्धु को , कीर्तन का उन्माद भी इसी भाँति देह की एक एक रक्त कन्दरा में उफनता हुआ , हरे कृष्ण हरे कृष्ण..... नाम का यह उन्मुक्त वर्षण न थमें थमे जैसे कहीं प्राणों को आहार ही मिल रहा , चेतना को आंनद मिल रहा , चैतन्य के स्पर्श से .... चैतन्यता का स्पर्श है कीर्तन प्राणों का मंथन है कीर्तन प्र...