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Showing posts from August, 2022

मैं प्यारी अपने प्रियतम की

मैं प्यारी अपने प्रीतम की प्रीतम मेरो नन्दकिशोर प्रेम रस बरसावे अति प्यारो साँझ होय चाहे भोर प्रेम सुधा पीवत रहूँ सखी प्रीतम प्रेम छलकावे नैनन प्रेम मदिरा सो भीजै पीवत ही रह जावे अंग अंग प्रेम रस बरस्यो व्यसन प्रेम को लगावे जाको नन्दनन्दन सखी लूटे कौन विधि बच पावे बहते निर्झर में संकलित 2016 का लिखित भाव

तुम्हारा प्रेम

प्रेम  तुम्हारा प्रेम विष है या अमृत अमृत नहीं  विष ही चखा दो अमृत पान की योग्यता कहाँ इस मलिन चित्त की विष  हाँ विष ही दो जीवन या मरण बस मरण ही दो विष तो एक बार ही मारेगा न तुम्हारे प्रेम का विष  नित्य मारेगा क्षण क्षण मारेगा हाँ यही विष दो यह लोभी चित्त जो जन्मों जन्मों ढूँढ़ रहा न कोई मधुरता  कोई विश्राम पर नही ढूँढ पाया यही विष इसकी दवा होगी दो न अपना विरह दो न प्राणों का वह क्रंदन दो न अपने नाम का लोभ दो न कहाँ सामर्थ्य है इस चित्त की  जो तुम तक आ सके तुम्हीं सामर्थ्यवान बलात कृष्ण करने वाले हे कृष्ण  हे कृष्ण करो न सार्थक  अपना नाम हे कृष्ण  हरे कृष्ण.....

चन्द्र दर्शन

चन्द्र दर्शन  किसे कहा तुमने नभ के चन्द्र को नहीं नहीं मेरे हृदय के चन्द्र मेरे निताई चाँद हाँ यह भी छिपे ही रहते मुझसे जैसे तुम्हारा चन्द्र छिप जाता तुमसे बादलों के पीछे यह भी छिपे ही रहते मेरे ही हृदय में कहीं तुम्हारा चन्द्र तो कुछ क्षण बाद  प्रकट भी हो जाता न देखो मेरे चन्द्र  नहीं आये मेरे चन्द्र मेरे निताई चाँद वो क्या छुआ था तुम  नहीं तुम तो नहीं थे छिपे ही रहे मुझसे

कीर्तन

कीर्तन कीर्तन मात्र शब्दों का ही उच्चारण नहीं, कीर्तन एक प्रवाह है रस की हिलोर, प्राणों के मंथन से गुंथित हुआ नाम प्रवाह , प्राणों को ही पुकारता हुआ.... हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे....   कीर्तन में प्राणों से उठती पुकार और प्राण भिन्न कहाँ हैं, अभिन्न हो गए, नाम ही गुंजायमान हो रहा , नाम ही बह रहा रस होकर , नाम ही प्रवाहित हो रहा दसों दिशाओं में ...... प्रेम की गूँज, प्रेम का आवेश, प्रेम की तरंग, प्रेम का उन्माद है कीर्तन , जो इस तरंग में गया बस रँग गया , पकड़ा गया, बह गया इसी प्रेमोन्माद में , अब यह उन्माद बहता बहता महासागर की भाँति तरँगायमान हो रहा , जहां रस की हिलोर , प्रेम का उन्माद समेटते न बने रोक सकते हो तुम महासागर को, रोक सकते हो तुम उस महासिन्धु को , कीर्तन का उन्माद भी इसी भाँति देह की एक एक रक्त कन्दरा में उफनता हुआ , हरे कृष्ण हरे कृष्ण..... नाम का यह उन्मुक्त वर्षण न थमें थमे जैसे कहीं प्राणों को आहार ही मिल रहा , चेतना को आंनद मिल रहा , चैतन्य के स्पर्श से ....  चैतन्यता का स्पर्श है कीर्तन प्राणों का मंथन है कीर्तन प्र...

मूक वार्ता

तुम्हीं तो हो हाँ तुम पवन होकर शीतल स्पर्श देते रस से भरा स्पर्श कैसे मूक वार्ता करते जैसे शेष सब जड़ हुआ उस क्षण उस क्षण बस तुम्हीं तो थे वो कम्पन स्पंदन सिहरन नेत्र जैसे हर ओर से हट एक जगह ही सिमटना चाहते कभी रसभार से मुँद जाते तो कभी पुनः निहारन को व्याकुल अपने हृदय की धड़कन ही  समेटते नहीं बनती जैसे ठहर जाएं यह क्षण ऐसे ही बस तुमको निहारते तुमसे बतियाते एक बार तुम्हारा स्पर्श हुआ फिर जहाँ भी निहार बनती बस तुम्हारे ही गीत सुनते नाचते वृक्ष की लताएँ  क्या क्या कह रही मुझसे वो खगों का कलरव यह रसावेश न पकड़ते बनता न छूटते बनता बस खोए रहना चाहती  ऐसे ही तुमको निहारते तुम्हारी वार्ताओं में कभी छूट जाती यह वार्ता तो हृदय पुकार पड़ता कहाँ खो गए तुम फूट पड़ता यह रुदन फिर एक एक अश्रु बन  तुम ही स्पर्श करते हे प्रेम हे प्रेम भर जाओ न भीतर ..... यह वार्ता चलती रहती अनन्त तक....

एक बूंद तृषा

जड़ हाँ जड़ ही तो हूँ नित्य नित्य गहरी होती जड़ता संसार कीच में धँसती धँसती सम्पूर्ण अभाव चैतन्य हीन दशा ऐसी जड़ता  जहाँ प्रवेश ही नहीं चेतना का और तुम चैतन्य नित्य चैतन्य बद्ध जड़ताओं से मुक्त करने हेत जड़त्व को चैतन्य करने हेत काट दो न यह जड़ता ऐसी जड़ता बद्ध दशा कि चैतन्य स्पर्श की एक बिन्दु लालसा भी न लगी केवल और केवल तुम्हारा स्पर्श  ही इस जड़त्व से मुक्त कर चैतन्यता की बिन्दु प्रदान कर सकता हे महाचैतन्य  हरे हरि हरण करो  हरे हरि हरण करो प्रदान करो एक बूंद चैतन्य तृषा  एक बूंद चैतन्य प्रेम