काश

काश बहने देते थोड़े अश्क़ और 
इन अश्कों में ही सारा दर्द बह जाता

कलम भी उस मोड़ न उठाई हमने
चुभता सा नासूर लफ़्ज़ों में रह जाता

खामोश भी होने न दिया इस दिल की लगी ने
उठते से तूफान को भी यह दिल सह जाता

न होते हम यूँ शर्मिंदा अपनी हरकत पे 
कुछ तो था जो दरमियाँ हमारे रह जाता

Comments

Popular posts from this blog

भोरी सखी भाव रस

घुंघरू 2

यूँ तो सुकून