कसूर मेरी नज़र का

सब कसूर मेरी नज़र का ही....

क्यों 
तुम्हें निहारती नहीं
क्यों 
तुम्हें पुकारती नहीं
क्यों 
इनकी तलाश कुछ और ही
क्यों
इनका अंदाज कुछ और ही

सब कसूर मेरी नज़र का ही.....

क्यों 
इन्हें कुछ और लुभा रहा
क्यों
इन्हें कुछ और बुला रहा
क्यों
इनमें कुछ और समा रहा
क्यों
इनका अंदाज़ कुछ और ही

सब कसूर मेरी नज़र का ही.....

क्यों
मुझसे कुछ मेरा छूटता नहीं
क्यों
हर झूठा रिश्ता टूटता नहीं
क्यों
इस रूह को तेरी तलब नहीं
इनका अंदाज कुछ और ही

सब कसूर मेरी नज़र का ही....

Comments

  1. हाय। इतना सुंदर भाव।
    नमन।

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