तेरा ज़िक्र

*तेरा जिक्र*

तेरा जिक्र ही भर दिया खुशबू से तेरी
और मैं भीग रही इन इश्क़ की बारिशों में

बेवज़ह तो कभी कुछ हुआ ही नहीं
बन्ध गयी मैं तेरे इश्क़ की साज़िशों में
तेरा जिक्र ही.....

सच है कभी इश्क़ न कर पाई तुमसे
तुम खुद ही उतरते रहे मेरी ख्वाहिशों में
तेरा जिक्र ही......

तेरा ज़िक्र ही अब बन्दगी है मेरी
इश्क़ कहाँ बंधता है बंदिशों में
तेरा जिक्र ही.....

मुद्दतों बाद आज फिर वही बरसात हुई
सुलगती रही यह रूह जाने क्यों तपिशों में
तेरा ज़िक्र ही ........

बात करते रहे उनकी हम हवाओं से
लफ्ज़ ढलते गए कुछ यूं ही बंदिशों में
तेरा ज़िक्र ही .....

तेरा जिक्र ही भर दिया खुशबू से तेरी
और मैं भीग रही इन इश्क़ की बारिशों में

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