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Showing posts from November, 2022

प्रेम

प्रेम कितना विचित्र शब्द है न प्रेम  नहीं बांध सकते शब्दों में इसे सागर को क्या बांध सकते सागर की उस मौज को कहने को उठती हैं न लहरें भी ऐसे ही शब्द उठते हैं रसिकों के हिय से उनकी वाणी झरण..... एक एक शब्द रस रस रस   प्रेम कितना स्वतंत्र है किन्ही हदों में नहीं बांधता पर प्रेम की कोमल डोरी से बांध लेता है बड़ी बड़ी रीतियों रिवाजों रस्मों से परे इस प्रेम की सत्ता कभी पक्षी बन उड़ने को तैयार कभी जड़ भाँति सुप्तावस्था कभी नृत्य में भरती प्रेम की मौज कभी सिसकता रात रात भर बड़ा विचित्र प्रेम है जी कोई कायदा ही शेष न रहा जैसे मुक्त कर दिया सबसे कोई ज्ञान विज्ञान नहीं प्रेमी का विज्ञान  स्मृत रहो बस तुम बस तुम भीतर ही भीतर सब कोई उत्सव में भरी झूम होकर झूमता प्रेम कभी कभी हृदय पर भी ताप से फफोले लिए घूमता प्रेम विचित्र है प्रेम अपरिभाषित है प्रेम मूक संवादों में भी बोलता यह प्रेम समझ से भी परे जैसे कैसे समझाऊँ कैसे समझूँ बस सागर की लहरों में जैसे कोई सँग सँग बह जाए ऐसी स्थिति  क्या करूँ जो तुम चाहो कहाँ जाऊँ जहाँ तुम चाहो क्या बोलूँ जो तुम सुन्ना चाहो कहाँ क्या कैसे इसका उत्तर तुम...

कर लेते चोरी

कर लेते चोरी एक यह भी काश एक चोरी कर लेते हुई नही न पर क्योंकि चुराया तो नवनीत जाता है न जो तुम्हें कोमलता मधुरता स्निग्धता दे जो रस हो तुम्हारा ही तुम्हीं से छुटा हुआ तुम्हारी ही प्रतीक्षा में तुम्हारा होने को व्याकुल हाँ मथती है न गोपी नित नित नव नव रस तुम्हारे लिए ..... तुम्हारी ही प्रतीक्षा में ..... वही करोगे न चोरी कोई सुख नहीं मुझमें तुम्हारा कोई रस नहीं मुझमें तुम्हारा कोई सेवा नहीं मुझमें तुम्हारी कोई रँग नहीं मुझमें तुम्हारा ....... बिखरन सी बस  बुने हुए कुछ ताने बाने समस्त सुखों की अभाव अवस्था सब रसों की अभाव अवस्था मैं क्या दूँ तुमको और तुम भी क्यों करो चोरी ठहरो ठहरो जाँच लो परख लो लौट जाओ आज लौट ही जाओ मत करो चोरी छिप जाऊँ कहीं छिप जाऊँ....