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तो कैसे

कभी उतरो मेरे लफ़्ज़ों में बात  कहो दिल की लिखूँ तो कैसे.... जाने क्या हाल दिल की दिल को ही न पता है हाल ए दिल भी दिल से पूछूँ तो कैसे..... कुछ सुलगता सा है भीतर जाने कुछ बहता सा नहीं अब जुबाँ पर आता कहूँ तो कैसे..... सच है कि काबिल ए इश्क़ हम मुद्दत से नहीं थे इस इश्क़ की चाशनी में मिलूँ तो कैसे..... नहीं काबिल इतनी साहिब मैं तुम को दिल मे रखलूँ और खुद तुम्हारे दिल में रहूँ तो कैसे..... ज़रा मुझको तड़प देना इस इश्क़ की कोई सुलगन पत्थर सा हो चुका दिल तड़पूं तो कैसे..... न कोई खुशी है न ही गम रहा कोई बाकी अब जाने यह कैसा मन्जर कुछ कहूँ तो कैसे......

काश

काश बहने देते थोड़े अश्क़ और  इन अश्कों में ही सारा दर्द बह जाता कलम भी उस मोड़ न उठाई हमने चुभता सा नासूर लफ़्ज़ों में रह जाता खामोश भी होने न दिया इस दिल की लगी ने उठते से तूफान को भी यह दिल सह जाता न होते हम यूँ शर्मिंदा अपनी हरकत पे  कुछ तो था जो दरमियाँ हमारे रह जाता