*तुम और मैं* *ईश्वर और जीव* किसके चेहरे में क्या देखूँ यहां चेहरे पर इक चेहरा है इक चेहरा तुझसे मिलता है इक चेहरा मुझसे मिलता है जब तुझसा चेहरा देखती हूं तो सच तुझमें खो जाती हूं जब लगता वो चेहरा अपना तब आँखें बंद कर लेती हूं काश सब देखती मैं तुमसा ही काश सबमें तुमको देख पाती मेरी नज़र भी है मेरे जैसी ही क्यों मुझको ही खड़ा कर पाती तुम ही तुम रहो न नजरों में न तेरे सिवा कोई नज़र में हो गर मेरी नज़र न तुमको देख सके मेरी नजर में अपनी नज़र कर दो अर्थात हर जीव के भीतर परमात्मा का ही अंश है। जब किसी का जीव भाव दृढ़ है वो सब तरफ कमी देखता है , शिकवा शिकायत ही करता है। कभी किसी के गुण दिखते हैं तो वो ईश्वर स्वरूप लगता है और अवगुण देखने वाली यह आंखें मुझसे तुम्हारी ही तो छवि छिपा रही हैं। क्योंकि अवगुणो में आप नहीं दिख रहे तब मेरा स्वयं का जीव भाव नहीं छूट पाता।हे नाथ मेरी यह जीव दृष्टि भंग करदो ताकि चहुं ओर आपका ही विलास निहार सकूं।