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विस्मृति

विस्मृति कैसे भूल सकता है कोई अपने प्राणों को  विस्मृति कितनी गहन विस्मृति अपने प्राणों की विस्मृति सत्य नहीं सत्य नहीं यह असत्य हमारा तुम कभी प्राण हुए ही नहीं कभी हुए ही नहीं होते तो विस्मृति कैसे होती प्राणप्रियतम तो रहते हैं स्वास स्वास में हो गई विस्मृति कितनी गहन विस्मृति प्राणों में कोई क्रन्दन ही नहीं तुम्हें भूलने का फिर प्राण ही क्यों क्यों शेष हे प्राणेश  लौटा दो न निज नाम निज नाम निज नाम

हे दामोदर

हे दामोदर कैसे बांध सके  तुम्हें कोई कोई जप कोई तप कोई साधना नहीं नहीं..... तुम किसी साधन से नहीं मिलते... किसी सामर्थ्य से नहीं मिलते... तुम तो बंधते हो मिलते हो तो मात्र प्रेम से.... प्रेम से... और प्रेम शून्य की क्या गति अवगुण की खान की क्या गति.... गति मति रति हीन ..... नहीं तुम्हें बांधने की सामर्थ्य नहीं हे दामोदर ! हे दामोदर ! तुम्हीं बांध लो अपने प्रेम रज्जु से तुम ही बांध सकते केवल तुम.....