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बिरथा स्वासा

हरिहौं कीन्हीं बिरथा स्वासा । दरस भये न इन नैनन सौं देखत जगत तमासा ।। बिरथा रसना तुव नाम न गाई पावै भोग बहु भाँति । बिरथा कर जो सेवा न कीन्हीं बिरथा सब तन काँति ।। बिरथा जीवन सगरो गोविन्द कौन भाँति लगै तुव काजै । भोग लोभ मद मत्सर शत्रु बाँवरी हिय सब आन बिराजै ।।

जगति चाकी

हरिहौं पिसी हौं जगति चाकी भोग वासना मद मत्सर की ढेरी नाम कबहुँ न चित्त राखी चँचल मन जगति पुनि पुनि धावै , हिय होय मान बड़ाई आशा हरिनाम सौं कोसों दूर बाँवरी पड़ी रहे क्षण क्षण भव पाशा पकरि पकरि अबहुँ चपत लगावो कौन भाँति चित्त नाम गढै हरिनाम रस कबहुँ पिये बाँवरी कबहुँ रसना हरिनाम चढ़ै

भजन बिना जग दुखिया

हरिहौं भजन बिना जग दुखिया बिरथा गमावै स्वासा अमोलक कौन भाँति होय सुखिया हरिनाम ही सुख होय साँचो जो नाहि जाने मति भरमाया जगत की विष्ठा पावै सूकरी कबहुँ हरिनाम स्वाद न पाया हरिहौं देयो निज नाम की भिक्षा जन मैं तेरो अधम अभागा बाँवरी जन्म गमाई बिरथा न अबहुँ चित्त हरि सौं लागा